दर्द का रास्ता छोड़ कर मंजिलों से हमने कहा थोडा दूर चली जाये, रास्ता कम लगता है हमारे पैरों को चलने के लिए...

Wednesday, February 3, 2010

राजनीतिक दल और नेताओ की कथनी और करनी में बहुत अंतर है....

हम सभी जानते है की राजनीतिक दल और नेता मुंह से कुछ कहते है और करते कुछ है । मीडिया में रोज़ ही इन लोगो के कारनामे हम देखते ,सुनते रहते है। संसद सत्र में अपशब्द, तोड़फोड़ , चप्पल जूते एक दूसरे पर फेंकते, माइक तोडना, शोर शराबा, अनुशासनहीनता हर बार करते नज़र आते है। और सत्र के बाद बेवजह के मुद्दों पर बयानबाजी करते है। पैसा , बाहुबल और आपराधिक रिकॉर्ड होना नेताओं के लिए ज़रूरी है। सभी ने 'लोक- लुभावने मुखौटे' पहन रखें है। देशभक्ति , जनकल्याण , एकता , देश की अखंडता को तक पर रखकर सत्ता सुख करने को सदैव तत्पर रहते है।
हमारे देश में दलीय व्यवस्था दूषित और रोगग्रस्त हो गयी है जिसका निकट भविष्य में स्वच्छ और स्वस्थ हो पाना मुश्किल है। सभी दलों और नेताओं में ईमानदारी का घनघोर अभाव है जिसके परिणाम स्वरुप ये सभी जनता में विश्वसनीय नही रह गए है।
याद कीजिये आज़ादी के बाद के नेताओं को जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी देश के नाम लिख दी। राजेन्द्र प्रसाद, मोरार जी देसाई , सरदार वल्लभ भाई पटेल, लाल बहादुर शास्त्री , राम मनोहर लोहिया जैसे नेताओं का जीवन कितना सादा और उच्च विचारों वाला था।
आज़ादी के बाद देश में ५६२ रियासतें थी, तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इन रियासतों को एक सूत्र में पिरोया था। आज के नेता जैसे बाल ठाकरे, राज ठाकरे (जो उत्तर प्रदेश ,बिहार और अन्य प्रान्त के लोगो को मुंबई में नही रहने देना चाहते है) चन्द्र शेखर राव (तेलंगाना राज्य ) , अजीत सिंह ( हरित प्रदेश ) राजा बुंदेला (बुंदेलखंड राज्य ) जैसे नेता अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए राज्य की मांग करते रहते है । नेताओं ने अपनी नासमझियों , संकीर्णताओ और कुटिलताओ से जनता को पराजित और भ्रमित कर दिया है।
1985 के दल बदल निषेध कानून के साथ राजनीतिक दल वैधानिक व्यवस्था के अंग बन गए है पर सभी वाकिफ है कि नेताजन इस कानून का कितना मखौल उड़ाते है, कब कौन किस पार्टी में है या जायेगा कोई नही बता सकता, बड़ी बेशर्मी से दल बदलते रहते है।। 1989 में 'जन प्रतिनिधित्व अधिनियम' की धारा २९ के अनुसार सभी राजनीतिक दलों को संविधान के प्रति समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता तथा लोकतंत्र के प्रति निष्ठां घोषित करने की व्यवस्था की गयी है। सभी दलों ने लोकतंत्र ,धर्म ,जाति,क्षेत्र के नाम पर राजनीति का भगवाकरण कर दिया है।

सबसे विडम्बना की बात तो यह है कि संविधान के अनुच्छेद ५१ में अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा का प्रावधान किया है। जो विश्व शांति सुरक्षा ,अंतर्राष्ट्रीय विधि के प्रति आदर और पालन , सभी देशों के बीच मधुर संबंधों की अपील करता है। क्या आपको लगता है कि हमारे नेता संविधान निर्माताओं की दूरदर्शिता को समझ पाएंगे जिन्होंने विश्व संसद की कल्पना की थी। नेताओं को तो अपने देश की शांति और व्यवस्था की चिंता है नही तो विश्व के बारे में क्या सोचेंगे। नेताजन बोलते ज्यादा है करते कुछ नही है। देशभक्ति, स्वाभिमान, लोकहित सब गुज़रे ज़माने की बातें हो गयी है। देश की नैय्या राम के भरोसे है। हमे विश्वास है कि आने वाले समय में हम नेताओ के वादों के भ्रम से उभर कर देश को नए सूत्र में पिरोयेंगे.....

3 comments:

  1. जानते हैं पर मानते नहीं - आपके विचारशील आलेख शायद कुछ असर करे

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  2. बहुत सही कहा आपने ........आज कल के नेता स्वयं का सुख भोगना चाहते है .......इस देश का क्या होगा इसकी उनको फ़िक्र नहीं .

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  3. हमे विश्वास है कि आने वाले समय में हम नेताओ के वादों के भ्रम से उभर कर देश को नए सूत्र में पिरोयेंगे.....

    Charity begings at your backyard, be the change you want to witness otherwise being hopeful is being utter hopelessness later.

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