दर्द का रास्ता छोड़ कर मंजिलों से हमने कहा थोडा दूर चली जाये, रास्ता कम लगता है हमारे पैरों को चलने के लिए...

Wednesday, February 24, 2010

प्रकृति के रंग ,बाज़ारों की रौनक और होली


वसुंधरा बचाओ ,पर्यावरण बचाओ , पानी बचाओ , पेड़ बचाओ ,बाघ बचाओ, गिद्ध बचाओ! सब बच जायेगा जब हम सजग रहेंगे....................
धीरे-धीरे जाने अनजाने कितनी ही चीज़े हमारी आँखों के सामने से विलुप्त होती जा रही है पर हम बेफिक्र होकर अपनी जीविका के लिए संघर्ष कर रहे है। समाज और मीडिया के कुछ लोग इसको लेकर रोज़ कुछ न कुछ जनांदोलन करते रहते है पर लोग इस पर ज्यादा ध्यान नही देते क्योकि उनके पास टाइम नही होता है । वैसे भी आजकल के लोगो की मेमोरी भी 'गजनी' वाले आमिर खान की तरह हो गयी है जो १५ मिनट बाद सब भूल जाते है। पर लोगो की भूख बढ़ गयी है नदी , कुआ ,तालाब, झील ,जंगल सब खाते जा रहे है फिर भी चैन नही मिल रहा है। हमारी बढ़ी भूख को शांत करने के लिए सारे आनाजों के बीज शंकर(डंकल) में आ गए है, देसी बीजों का अस्तित्व ख़त्म हो गया है,या फिर संग्रालय में संरक्षित कर दिया गया है क्योकि देसी बीज भी विलुप्त हो रहे है। इसमें कोई चिंता का विषय थोड़े न है ये तो हमारी उन्नति के लक्षण है कि अब हम भी विकसित देशों कि श्रेणी में आ रहे है। जितना हम प्रकृति से दूर जायेंगे उतना हम भौतिकता की दौड़ में आगे बढ़ते जायेगे तभी तो विनाशगाथा की कहानी में चरमोत्कर्ष आएगा। उद्भव और सृजन का सुन्दर स्वरुप हमने समझा नही तभी अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे है।
बाजारीकरण का कीड़ा सबकी नसों में घुस चुका है। हमने अपनी भावनाओ ,संवेदनाओ, अनुभूतियों को स्वार्थ की गहरी नदी में फेंक दिया है। अरे ! हम कहते है कि अगर हर व्यक्ति एक पीपल ,बरगद ,पाकर या नीम का पेड़ लगा दे तो उसका क्या कम हो जायेगा। अपना परिवार तो हर इंसान बढ़ाना चाहता है पर धरा की सूनी गोद किसी को नही दिखाई देती है।
बाज़ारों की रौनक देख कर लगता है कि होली आ गयी है ,हर तरफ रंग ही रंग बिखरे है । पर कहीं से कोई बसंत की बयार नही बह रही है, किसी पेड़ की नयी कोपलें मुस्कुराती होली की बधाई नही दे रही है, कहीं पर चिड़ियों का झुण्ड गीत नही गा रहा है, कोई कौआ छत पर पापड़ नही चुरा रहा है, आम के बरौनी की भीनी खुशबू किसी ने शायद ही महसूस की होगी। हर त्यौहार की आहट बाज़ारों की रौनक से पता चलती है न कि प्रकृति के बदलाव ,सुन्दरता ,और स्वरुप से। प्रकृति को कितना पीछे छोड़ दिया है हमने कि ज़िन्दगी के मायने बदल गए।

उल्लास प्रीत और सद्भावना का त्यौहार हम प्रकृति के साथ क्यों नही मानते ? हम अपनी होली अपने तक ही मानते है धरती माँ के साथ , जानवरों के साथ,पेड़ों के साथ ,पक्षीयों के साथ क्यों नही मानते। कभी किसी पेड़ को गुलाल का टीका लगाया है अपने। किसी जानवर को घर बुला कर गुझिया ,पापड़ खिलाये है आपने। शायद बहुतों ने ऐसा किया होगा या हमेशा करते रहते होंगे। पर जिसने नही किया अगर वो करके देखे तो सच्चे मायनों में आपको त्यौहार मनाने की ख़ुशी मिलेगी।


चलो इस होली एक पेड़ लगाये, प्रकृति से जुड़े, कुछ सार्थक करे जिससे मन को सुकून मिले!

प्रकृति से जुडो होली है!!!!!!!