आज कल ज़िन्दगी ने नया रुख लिया है। जैसे मेरी आत्मा को किसी चीज़ की तलाश है जो मेरे मन को शांति दे सके। आजकल लगता है ईश्वर, प्रभु ,परमेश्वर,मंत्र सब को जानना चाहते है। आध्यात्मिक मनन और चिंतन में ही सुख मिलता है। ज़िन्दगी के इस मोड़ पर शायद हम बहुत अकेले है तभी भगवान पाना चाहते है और उस परमेश्वर की सर्वस्त्र उपस्तिथि को महसूस करना चाहते है। कभी किसी ज़माने में हम पूरे समय MTV देखते थे। पर अब तो हमसे वो चैनल बर्दास्त ही नही होता। किसी तरह से दुनिया से अलग रहना चाहते है।
जब हम जन्म लेते है तो माँ-बाप के साये में पलते है पर शादी एक बड़ी घटना है जो ज़िन्दगी को नया पाठ पढाती है। इंसान कितना अकेला है ये शादी के बाद ही पता चलता है। हम कोई अपनी वेदना नही बता रहे है बल्कि एक सच्चाई बता रहे है जो हर स्त्री पुरुष शादी के बाद अनुभव करते है ।शादी कोई बुरा संस्कार नही है। यह तो एक संस्था है जो अपना उद्देश भूल चुकी है। ज़िन्दगी का हर रिश्ता समय के साथ बदला है तो यह संस्था क्योंकि अछूती रहे। इसमें कोई बुराई नही है पर अब ये अपनी वास्तविक आस्था खो कर सिर्फ एक मजबूरी और बंधन बन गयी है। आदमी जब चाहे तो स्त्री को छोड़ दे , मानसिक और शारीरिक पीड़ा दे। खैर सबके साथ ऐसा नही होता या आजकल लोगो को समझौते की आदत हो गयी है। सोचते है कि इंसान को हर चीज़ तो नही मिलती ।अच्छी बात है।
यही ज़िन्दगी का अहम् पड़ाव है जब हम ईश्वर से साक्षात्कार कर सकते है। अपनी ज़िन्दगी को बदल सकते है । यही समय है जब हम मानव से महामानव बन सकते है। महामानव बनने का अधिकार सिर्फ पुरुषों को नही मिला है। हम यहाँ पर नारीवादी धारणा जैसी बात नही कर रहे है। हम तो बस अपनी वैचारिक उन्नति की बात कर रहे है जिसमे स्त्री पता नही क्यों पीछे रह जाती है। घर परिवार में इतना व्यस्त रहती है कि अपनी आत्मिकशक्ति ,विश्वास , मनोभावों और अंतरात्मा को विकसित नही कर पाती।
जहाँ बात स्त्री की आती है वहां करुना स्वयं ही आ जाती है। प्रेम, दया, सेवा, कर्तव्यनिष्ठा, उदारता और ममता की प्रतिमूर्ति नारी है। पीर तो तब होती है जब स्त्री को सारी बुराइयों की जड़ माना जाता है। शायद कही कोई बहुत बड़ी भूल हम कर रहे है।
जब आप से आपके पति या पत्नी नाराज़ हो जाते है तो आप सोचते है कि क्या बात है जो ये हमसे नही बोल रहे है पर क्या कभी सोचा है कि ये आंगन में लगे पेड़ हमसे बात क्यों नही करते।
जब हम जन्म लेते है तो माँ-बाप के साये में पलते है पर शादी एक बड़ी घटना है जो ज़िन्दगी को नया पाठ पढाती है। इंसान कितना अकेला है ये शादी के बाद ही पता चलता है। हम कोई अपनी वेदना नही बता रहे है बल्कि एक सच्चाई बता रहे है जो हर स्त्री पुरुष शादी के बाद अनुभव करते है ।शादी कोई बुरा संस्कार नही है। यह तो एक संस्था है जो अपना उद्देश भूल चुकी है। ज़िन्दगी का हर रिश्ता समय के साथ बदला है तो यह संस्था क्योंकि अछूती रहे। इसमें कोई बुराई नही है पर अब ये अपनी वास्तविक आस्था खो कर सिर्फ एक मजबूरी और बंधन बन गयी है। आदमी जब चाहे तो स्त्री को छोड़ दे , मानसिक और शारीरिक पीड़ा दे। खैर सबके साथ ऐसा नही होता या आजकल लोगो को समझौते की आदत हो गयी है। सोचते है कि इंसान को हर चीज़ तो नही मिलती ।अच्छी बात है।
यही ज़िन्दगी का अहम् पड़ाव है जब हम ईश्वर से साक्षात्कार कर सकते है। अपनी ज़िन्दगी को बदल सकते है । यही समय है जब हम मानव से महामानव बन सकते है। महामानव बनने का अधिकार सिर्फ पुरुषों को नही मिला है। हम यहाँ पर नारीवादी धारणा जैसी बात नही कर रहे है। हम तो बस अपनी वैचारिक उन्नति की बात कर रहे है जिसमे स्त्री पता नही क्यों पीछे रह जाती है। घर परिवार में इतना व्यस्त रहती है कि अपनी आत्मिकशक्ति ,विश्वास , मनोभावों और अंतरात्मा को विकसित नही कर पाती।
जहाँ बात स्त्री की आती है वहां करुना स्वयं ही आ जाती है। प्रेम, दया, सेवा, कर्तव्यनिष्ठा, उदारता और ममता की प्रतिमूर्ति नारी है। पीर तो तब होती है जब स्त्री को सारी बुराइयों की जड़ माना जाता है। शायद कही कोई बहुत बड़ी भूल हम कर रहे है।
जब आप से आपके पति या पत्नी नाराज़ हो जाते है तो आप सोचते है कि क्या बात है जो ये हमसे नही बोल रहे है पर क्या कभी सोचा है कि ये आंगन में लगे पेड़ हमसे बात क्यों नही करते।
जब छोटे बच्चे कि हर बात माँ बिना बताये जान लेती है तो किसी बेजुबान को क्यों नही समझ पाती है।
ये सब हमारी अध्यात्मिक वैचारिक कमी के कारण होता है । अपने सुख साधन में इतने मशगूल रहते है कि तमाम ईश्वरीय चीज़ों को नज़रअंदाज़ करते जा रहे है ।