दर्द का रास्ता छोड़ कर मंजिलों से हमने कहा थोडा दूर चली जाये, रास्ता कम लगता है हमारे पैरों को चलने के लिए...

Saturday, October 24, 2009

वक्त की मर्यादा को जानने लगे ,
तभी तो आसमा को अपने दामन में सिमटने लगे।
भरा था बहारों से सारा गुलसिता,
पर न जाने क्यो पतझड़ का इंतज़ार करने लगे।
बड़ी मुश्किल से संवारी थी तमन्नाओं की क्यारियां,
फ़िर न जाने क्यों ख़ुद ही उनको उजाड़ने लगे ।
सवेरे की चमकती सुर्खी से रोशन था आँगन ,
फिर ना जाने क्यों हम छत के ऊपर छत बनाने लगे।
नाउम्मीद कुछ नही था ,
बस हम यूं ही अपनी उम्मीदों पर शक करने लगे।
वक्क्त का सुनहरा दरिया बहता रहा ,
हम तो बस इसकी धारा को गिनते रहे।
सूरज रोज़ की तरह ओझिल हो गया,
और हम फिर आसमा को दामन में सिमटने लगे।
वैसे मुझे ज्यादा नही पता है पर जो हमको जो महसूस हुआ वही लिख दिया है। क्यों की हम ख़ुद अपने लिए ऐसी ही परिस्थितियां खड़ी करते है जिनके जिम्मेदार हम होते है। कुछ परेशानी का सबब हम होते है।
कहने का मतलब सिर्फ़ इतना है की हम कभी कभी इतना निराश होते है की ख़ुद ही अपना नुकसान करते रहते है।
ज़रा सी विपरीत परिस्थितियों में हाथ खड़े कर देते है अपनी हर जीत को हार में बदल देते है। फालतू में लड़ते है, बिगड़ते है, समय नष्ट करते है, बनी बनायी इमेज को ख़राब कर लेते है।

5 comments:

  1. बस हम यूं ही अपनी उम्मीदों पर शक करने लगे।
    वक्क्त का सुनहरा दरिया बहता रहा ,
    हम तो बस इसकी धारा को गिनते रहे।
    सूरज रोज़ की तरह ओझिल हो गया,
    और हम फिर आसमा को दामन में सिमटने लगे।

    haan! ummeedon par hamein kabhi kabhi shak to hota hi hai...... par waqt hai bahte pani ki ki tarah behta hi rehta hai..... waqt ka kaam hi hai behna..... aasman ko to hum hi baandhna chahte hain.....


    bahut hi achcha likha hai aapne..... bhaavpoorn arthon ke saath ek sashakt rachna....


    ==================

    M very thankful to u,,, Jyoti.....

    ThanX once again.....


    Regards....

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  2. नाउम्मीद कुछ नही था ,
    बस हम यूं ही अपनी उम्मीदों पर शक करने लगे।
    बेहतरीन अभिव्यक्ति. विसंगतियाँ जब दामन न छोडे तो विसंगतियाँ ही सहचर हो जाते हैं.

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  3. सूरज रोज़ की तरह ओझिल हो गया,
    और हम फिर आसमा के दामन में सिमटने लगे।

    बहुत गंभीर पंक्ति है, आप लिखते जाइये.

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  4. बड़ी मुश्किल से संवारी थी तमन्नाओं की क्यारियां,
    फ़िर न जाने क्यों ख़ुद ही उनको उजाड़ने लगे ।
    सवेरे की चमकती सुर्खी से रोशन था आँगन ,
    फिर ना जाने क्यों हम छत के ऊपर छत बनाने लगे।


    बहुत खूबसूरत कहा आपने...

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  5. सूरज रोज़ की तरह ओझिल हो गया,
    और हम फिर आसमा के दामन में सिमटने लगे।
    bahut khubsurat likha hai aapne.

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