वक्त की मर्यादा को जानने लगे ,
तभी तो आसमा को अपने दामन में सिमटने लगे।
भरा था बहारों से सारा गुलसिता,
पर न जाने क्यो पतझड़ का इंतज़ार करने लगे।
बड़ी मुश्किल से संवारी थी तमन्नाओं की क्यारियां,
फ़िर न जाने क्यों ख़ुद ही उनको उजाड़ने लगे ।
सवेरे की चमकती सुर्खी से रोशन था आँगन ,
फिर ना जाने क्यों हम छत के ऊपर छत बनाने लगे।
नाउम्मीद कुछ नही था ,
बस हम यूं ही अपनी उम्मीदों पर शक करने लगे।
वक्क्त का सुनहरा दरिया बहता रहा ,
हम तो बस इसकी धारा को गिनते रहे।
सूरज रोज़ की तरह ओझिल हो गया,
और हम फिर आसमा को दामन में सिमटने लगे।
वैसे मुझे ज्यादा नही पता है पर जो हमको जो महसूस हुआ वही लिख दिया है। क्यों की हम ख़ुद अपने लिए ऐसी ही परिस्थितियां खड़ी करते है जिनके जिम्मेदार हम होते है। कुछ परेशानी का सबब हम होते है।
कहने का मतलब सिर्फ़ इतना है की हम कभी कभी इतना निराश होते है की ख़ुद ही अपना नुकसान करते रहते है।
ज़रा सी विपरीत परिस्थितियों में हाथ खड़े कर देते है अपनी हर जीत को हार में बदल देते है। फालतू में लड़ते है, बिगड़ते है, समय नष्ट करते है, बनी बनायी इमेज को ख़राब कर लेते है।