एक हज़ार, दो हज़ार, तीन हज़ार तो हो गया
अब अरबों में भी गिनने कि बारी है
कुछ सहज सी कुछ नरम सी
अरमानों की टोली है
कुछ लिखते कुछ बनते चलते है
ये रिश्ते भी उम्र भर सजते है
रोज़ एक नया विश्वास भरते है
ये सच है या है कोई भ्रम
तुम चाहो तो जगा देना नींद से
वर्ना हम तो जन्मों से सोये है
जिनके पीछे हम चलते है
उनके आगे भी तो साये है
सर्द और गर्म कितने सपने
उन सपनों में नही मिलते अपने
जो है अपने वो तो मुद्दतों से पराये है.
bahut umda..
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