दर्द का रास्ता छोड़ कर मंजिलों से हमने कहा थोडा दूर चली जाये, रास्ता कम लगता है हमारे पैरों को चलने के लिए...

Thursday, July 29, 2010

चल चलें अपने घर.....


ज़िन्दगी इतनी तेज़ दौड़ी की हम पिछड़ गए,

आँखों से झलका दरिया और गले से सागर निगल गए,
ह्रदय का तूफ़ान इतना जोर से उठा
कि भीड़ में हम तनहा हो गए,

लगा लिया है हमने अपने अपनों का मेला
बस हम सिर्फ अपने खून को भूल गए,

रिश्तों की चादर बिछा कर वीरनों में सो गए,
कहते है कि वक़्त नही है हमारे पास किसी से मिलने का,

यही कहते हुए न जाने कितना वक़्त बर्बाद कर गए,
नही लगता दिल अब इस दुनिया में ,
आओ यारों अब अपने घर चलें.......

4 comments:

  1. एक सच को कहती अच्छी रचना

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  2. नही लगता दिल अब इस दुनिया में ,
    आओ यारों अब अपने घर चलें.......

    बहुत खूब ..!!!बहुत ही अच्छी रचना .......शब्दों के इस सुहाने सफ़र में आज से हम भी आपके साथ है ,,,इस उम्मीद से की शायद सफ़र कुछ आसान हो ...चलो साथ चलते है !
    बेहतरीन ..!!!
    अथाह...

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  3. भीड से जल्दी उक्ता जाता है इन्सान-- जीवन की गहमा गहमी मे अपनो से दूर हो जाने का दर्द अच्छी तरह शब्दों मे उतारा है। शुभकामनायें

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  4. lo kar lo baat....baithak tak hi gaye the ki kahaa aao vaapas ghar chale..
    ruko bhyi pahle ham baaki rachnaaon ko to padh chalen....

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